History of imam hussain in hindi pdf

कर्बला का युद्ध

कर्बला का युद्ध या करबाला की लड़ाई, वर्तमान इराक़ में कर्बला शहर में इस्लामिक कैलेंडर 10 मुहर्रम 61 हिजरी (10 अक्टूबर, 680 ईस्वी) में हुई थी।[6] यह लड़ाई मुहम्मद के नवासे हज़रत इमाम हुसैन इब्न अली के समर्थकों और रिश्तेदारों के एक छोटे समूह के और उमय्यद शासक यज़ीद प्रथम की एक सैन्य टुकड़ी के बीच हुई थी। इस लड़ाई में मुहम्मद के नवासे हज़रत हुसैन रजी० तथा उनके परिवार के पुरुष सदस्य व उनके साथी शहीद हो गए थे।

परिचय

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करबला की लडा़ई मानव इतिहास कि एक बहुत ही जरूरी घटना है। यह सिर्फ़ एक लड़ाई ही नहीं बल्कि जीवन के सभी पहलुओं की मार्ग दर्शक भी है। इस लड़ाई की बुनियाद तो हज़रत मुहम्मद के देहान्त के बाद रखी जा चुकी थी। इमाम अली अ० का ख़लीफ़ा बनना कुछ लोगो को पसंद नहीं था तो कई लडा़ईयाँ हुईं अली अ० को शहीद कर दिया गया, तो उनके पश्चात हज़रत इमाम हसन इब्न अली अ० खलीफा बने उनको भी शहीद कर दिया गया।

उस समय का बना हुआ शासक यज़ीद माना जाता है कि हुकूमत में ग़ैर इस्लामिक काम किया करता था, इराक़ के शहर कूफ़ा के लोगों ने इमाम हुसैन को कई ख़त लिख कर कूफ़ा आने को कहा ताकि वो उनके हाथों में बै'अत कर के उन्हें अपना ख़लीफ़ा बनाएं लेकिन यज़ीद चाहता था कि हुसैन उसके साथ हो जाएं, वह जानता था अगर हुसैन उसके साथ आ गए तो सारा इस्लाम उसकी मुट्ठी में होगा। लाख दबाव के बाद भी इमाम हुसैन ने उसकी किसी भी बात को मानने से इनकार कर दिया, तो यज़ीद ने हुसैन को रोकने की योजना बनाई। चार मई, 680 ई.

में इमाम हुसैन मदीने में अपना घर छोड़कर शहर मक्के पहुंचे, जहां उनका हज करने का इरादा था लेकिन उन्हें पता चला कि दुश्मन हाजियों के भेष में आकर उनका क़त्ल कर सकते हैं। हुसैन ये नहीं चाहते थे कि काबा जैसे पवित्र स्थान पर ख़ून बहे, इसलिए इमाम हुसैन ने हज का इरादा बदल दिया और शहर कूफ़े की ओर चल दिए। रास्ते में दुश्मनों की फ़ौज उन्हें घेर कर कर्बला ले आई।

इमाम हुसैन ने कर्बला में अपने ख़ैमे (तम्बू) लगाए। यज़ीद अपने सरदारों के द्वारा लगातार इमाम हुसैन पर दबाव बनाता गया कि हुसैन उसकी बात मान लें, जब इमाम हुसैन ने यज़ीद की शर्तें नहीं मानी, तो दुश्मनों ने अंत में फ़रात नदी (जिससे थोड़ी ही दूरी पर इमाम हुसैन ने अपने ख़ैमे लगाए थे) पर फौज का पहरा लगा दिया और हुसैन के ख़ैमों में पानी जाने पर रोक लगा दी गई। यज़ीद की फ़ौज को देख कर कूफ़ा के लोग जिन्होंने इमाम हुसैन को बुलाया था अपना खलीफा बनाने के लिए उन्होंने भी उनका साथ छोड़ दिया।

तीन दिन गुज़र जाने के बाद जब इमाम के परिवार के बच्चे प्यास से तड़पने लगे तो हुसैन ने यज़ीदी फ़ौज से पानी मांगा तो दुश्मनों ने पानी देने से इंकार कर दिया। दुश्मनों ने सोचा इमाम हुसैन प्यास से टूट जाएंगे और हमारी सारी शर्तें मान लेंगे। जब हुसैन तीन दिन की प्यास के बाद भी यज़ीद की बात नहीं माने तो दुश्मनों ने हुसैन के ख़ैमों पर हमले शुरू कर दिए। इसके बाद इमाम हुसैन ने दुश्मनों से एक रात का समय मांगा और उस पूरी रात इमाम हुसैन और उनके परिवार ने अल्लाह की इबादत की और दुआ मांगते रहे कि मेरा परिवार, मेरे मित्र चाहे शहीद हो जाएँ, लेकिन अल्लाह का दीन 'इस्लाम', जो नाना मोहम्मद लेकर आए थे, वह बचा रहे।

10 अक्टूबर, 680 ई.

को सुबह नमाज़ के समय से ही जंग छिड़, वैसे इमाम हुसैन के साथ केवल 175 या Clxxx मर्द थे, जिसमें 6 महीने से लेकर 13 साल तक के बच्चे भी शामिल थे। इस्लाम की बुनियाद बचाने में कर्बला में 162 लोग शहीद हो गए, जिनमें दुश्मनों ने छह महीने के बच्चे अली असग़र (इमाम हुसैन के बेटे) के गले पर तीन नोक वाला तीर मारा, 13 साल के बच्चे हज़रत क़ासिम (इमाम हुसैन के भतीजे) को ज़िंदा रहते घोड़ों की टापों से रौंद डलवाया और सात साल आठ महीने के बच्चे औन-मोहम्मद (इमाम हुसैन के भांजे) के सिर पर तलवार से वार कर शहीद कर दिया था।

इन्हें भी देखें

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अन्य विकि परियोजनाओं में

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सन्दर्भ

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बाहरी कड़ियाँ

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